Mar 27, 2012

परछाइयाँ

जिन दरवाजों पर सुबह-शाम दस्तक देते है लोग
उस घर में तो हम रहते ही नहीं
हाँ हमारी परछाई रहती थी कभी

और परछाइयों का क्या
आती-जाती रहतीं  हैं...

काश कोई हमारे घर तक पहुँचता
तो हमसे मुलाकात हो पाती ।



6 comments:

  1. जब से मैं तेरे साज़ की चुप हूँ ।
    तब से अपनी आवाज़ की चुप हूँ ।
    मुझ को मालूम नहीं कहाँ जाना ,
    इस लिए हर आगाज़ की चुप हूँ ।
    तुम ने वादा कोई निभाया था ,
    मैं तेरे उस लिहाज़ की चुप हूँ ।

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  2. nice pick! :)
    Please avoid posting anonymously... would appreciate your courage to turn up with some identity.

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  3. एक हसीं लम्हा
    जो
    लाया था मेरे लिए
    सारे जहाँ की खुशियाँ
    अगले ही पल
    खत्म हो गया
    और
    मुझे रोता बिलखता
    छोड गया
    इस अँधेरे जीवन में
    जो
    खालीपन से भरा है.

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  4. सिर्फ़ कोशिश है बस, हर कोशिश में लटक जाती है
    एक टक देखने जाता हूँ, मेरी आँख झपक जाती है
    और निगाहें भी ग़लत से, किसी दम मिल जो गईं
    आईने बन के तो आते है, मुई शक्ल चटख जाती है

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    1. though U have decided to continue d anonymity, I couldn't miss appreciating ur words.
      keep 'em coming!

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