Nov 6, 2011

चाह

अब संघर्षों की चाह मुझे

कुछ इन्द्रधनुष तो देखे है
अब नील गगन की चाह मुझे
हुई असहनीय यह शीतलता
अब सतत तपन की चाह मुझे
है शांत ह्रदय भी निष्क्रिय सा
अब स्पंदन की चाह मुझे

खुशियाँ तो यूँ मिलती सी रही
अब दर्द-जलन की चाह मुझे
ये अपने भी कुछ अधिक हुए
अब अजनबियों की चाह मुझे

ना दोस्त कभी मिल सके मुझे
ना दुश्मन ही मैं बना सकी
इन रिश्तों की परिभाषाओं के
अपमार्जन की चाह मुझे !


3 comments:

  1. खाली सा मेरा मन
    गुम हुआ हर पल उस में
    और झूठे भ्रम को
    सच समझता रहा ,

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    1. ना दोस्त कभी मिल सके मुझे
      ना दुश्मन ही मैं बना सकी..

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  2. dost to mile......but aap bana ke rakh na payi kabhi......1

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