कांच के टुकड़े
बिखरे है चारों तरफ
इतने चमकदार.... लुभावने ।
सब में अपना अक्स सा कुछ दिखता है
जब भी कोई टुकड़ा उठाती हूँ
चुभ जाते है कुछ हाथों में
कुछ पैरों में
छलक आती है चंद बूँदें
गाढ़ी .. लाल ।
अरसा एक गुज़रता है फिर
कसक जाने में
भूल जाती हूँ अपना चेहरा
दर्द भी ... निशां भी ।
और फिर दौड़ पड़ती हूँ
उन्ही कांच के टुकड़ों की तरफ
अपना नया अक्स देखने ।