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Dec 19, 2012

कांच



कांच के टुकड़े
बिखरे है चारों तरफ
इतने चमकदार.... लुभावने ।
सब में अपना अक्स  सा कुछ दिखता है

जब भी कोई टुकड़ा उठाती हूँ
चुभ जाते है कुछ हाथों में
कुछ पैरों में
छलक आती है चंद बूँदें
गाढ़ी .. लाल ।


अरसा एक गुज़रता है फिर
कसक जाने में
भूल जाती हूँ अपना चेहरा
दर्द भी ... निशां भी ।

और फिर दौड़ पड़ती हूँ
उन्ही कांच के टुकड़ों की तरफ

अपना नया अक्स देखने ।