कहानियों के गुच्छे
कुछ सुलझाने है तुम्हारे साथ
गर मिले कभी हम
फुर्सत से..
बताउंगी तुम्हे
क्यों वो कहानी
इतनी लम्बी थी
फिर.. एक छोटी सी;
क्यों उस वाली में
इतना रोयी थी
क्यों किसी और में
ज़रा खुश थी।
क्यों एक बार
शब्द नहीं दिए थे किरदारों को
क्यों अगली में फिर
जी भर कर बातें की थी
हाँ , एक कुछ फ़िल्मी थी
और एक कड़वा सच सी ...
बुरा लगेगा तुम्हे,
जानती हूँ
तुम्हारा ज़िक्र जो नहीं था
किसी कहानी में,
शायद तुम समझ पाओगे
तुम्हारे ही तो रूप लिए थे
सब नायकों ने;
नायिका भी तो मैं ही थी
हर बार।
कुछ इसी तरह
ज़िन्दगी के तमाम पहलू
गुज़ारे है तुम्हारे साथ
तुम भी तो... थे ही नही,
मैं भी क्या करती?