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by Dear ones
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Jul 8, 2019
पंख
नन्हे चूजे ने पंख फड़फड़ाये
और फिर
वो भी उड़ गया
घोंसलों में घर
बन तो जाता है
बस नहीं पाता |
Aug 29, 2014
शहर
नहीं जानती इसे मैं
नहीं समझता मुझे ये
रिश्ता कुछ,
उल्फ़तों का बेरुख़ी सा है
मिलने मिलाने की कोशिश
सारी ज़ाया है
खुद में मगन ये
अहम सा बेखुदी सा है
ये जो दूसरा शहर है ..
अजनबी सा है
बड़ा है, खिला है
पर झूठी हंसी सा है
दिख जाते हैं फिर कभी
ऊँची इमारतों के पीछे वो बादल
जो वैसे ही हैं
जैसे थे मेरे शहर
उस रोज़ जब
बारिश हुई यहाँ भी
वही नर्म सिहरन थी
जैसी होती थी मेरे शहर
शायद हम ही बदल जाते हैं
शहरों की आड़ लेकर।
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