बचपन तुम कितने अच्छे थे
कितना चाहते थे मुझे
मेरी सारी शरारतें भुला कर
मेरे साथ खेलते थे
हँसते बोलते थे
रूठ जाऊ तो मना लेते थे
झगड़ा भी करूँ तो
बचाकर सबकी नजरों से
अपने मासूम से आंचल में छिपा लेते थे
बचपन ... तुम याद आते हो
सुनते थे मेरे सारे किस्से-कहानियां
मेरे दोस्तों से भी मिलते थे
बगैर शर्तों और स्वार्थ के
मुझे कितनी खुशियाँ देते थे
बचपन..तुम क्यों चले गए?
पता है?
अब कोई नहीं पीता वो झूठ-मूंठ वाली चाय
नहीं खेलता अब कोई गुड्डे-गुड़ियों के साथ
कड़वी चीज़ें पी कर
कड़वा बोलते हैं सब
रिश्तों और इंसानों के साथ खेलते है अब
नहीं मुस्कुराता कोई
बस यूँ ही...
अकेला मुझे यहाँ क्यों छोड़ गए तुम
बहुत सारी बातें करनी हैं
कभी आओ न मुझसे मिलने
जीना सा है कुछ तुम्हारे साथ
महसूस करना है फिर एक बार
तुम्हारा वो निश्छल, नादान सा प्यार..