Came across one of the manuscripts by my Grandfather. The intellect!
(the paper was preserved religiously by my Mom)
इस जग में कितना ही तुम स्वच्छंद विचर कर देख लो
तृप्ति न होगी, फिर भी कौतुक इधर उधर के देख लो।
जिस सुख को प्राणी अपनाता, वही ईश से विमुख बनाता
सुख ही है सर्वत्र नचाता, सुखासक्त प्राणी दुःख पाता
नहीं समझ में आये तो तुम भी जी भर के देख लो।
सीखो जग में सेवा करना सीखो दुनिया के दुःख हरना
सीखो भव से पार उतरना, सत् पथ में अब कभी न डरना
जो आया है जाएगा, यह धीरज धर के देख लो।
जग में जो कुछ बोया जाता कई गुना बढ़कर वह आता
जो सुख देता वो सुख पाता मान व अपना भाग्य विधाता
यदि तुम को विश्वास न हो तो कुछ भी कर के देख लो।
जिसको तुमने अपना माना यहाँ किसी का नहीं ठिकाना
निश्चित जिसका है छूट जाना फिर क्या उससे मोह बढ़ाना
तन में रहते हुए पथिक तुम, हर राह गुजर के देख लो।
तृप्ति न होगी, फिर भी कौतुक इधर उधर के देख लो ।
----- पं. राम नाथ द्विवेदी
ReplyDeleteसीखो जग में सेवा करना सीखो दुनिया के दुःख हरना
सीखो भव से पार उतरना, सत् पथ में अब कभी न डरना
जो आया है जाएगा, यह धीरज धर के देख लो।
सुन्दर लिखा है आपने
धन्यवाद।
Deleteये मेरे दादाजी की कलम है।